राजा, योगी, अगिन, जल इनसे रहे होशियार
राजा,योगी,अगिन, जल इनसे रहे होशियार…
✍ अकलतरा @श्याम केडिया
मुड़िया साधु! इसे ही ‘औघड़-भभ्भड़’ कहते हैं। अब तो तुम इस क्षेत्र की प्राकृतिक बोलचाल, उसकी भाषा और बहुतेरे शब्दों को समझबूझ सकते हो। अच्छा मुड़िया साधु! तुम समझो कि आखिर ऐसी आश्चर्यजनक घटनाएँ कैसे घटती हैं, होने के सरीखे कैसे भासती हैं।
सन्त, महात्मा, औघड़-अघोरेश्वर, सज्जन पुरुष के जाप, ध्यान-धारण, अनुष्ठान, पूजा, चिन्तन चिंगारी के सरीखा, अणु के सरीखा, कणों के सरीखा, ‘तृषरेणु’ के सदृश वाणी से लेकर, कण्ठ से नीचे तक उनके चक्षु में भी भरे रहते हैं।
यदि उनकी उपेक्षा उनके कर्ण में प्रविष्ट कर गयी तो उनके चक्षु, उनकी वाणी में निवास करने वाले अणु, तृषरेणु निस्सृत होकर चिंगारी की भाँति पूरे नगर के नगर को संतप्त करते हैं, जला देते हैं।
वे मनुष्य, प्राणियों की भी बुद्धि हर लेते हैं। जिसके परिणामस्वरूप वे अपने आप को नष्ट कर देते हैं। ऐसे लोग नगरों में उन्मादी की संज्ञा से जाने जाते हैं। उनका सर्वस्व, धन, जन, अभ्यन्तर और बाह्य भी, अपकीर्ति का भाजन हो जाता है। मुड़िया साधु! इन्हें ‘औघड़-भभ्भड़’ कहते हैं, जो कभी कोई शब्द नहीं उच्चारण करते, कभी कठोर नेत्रों से नहीं देखते। वे अर्द्धनिमीलित चक्षुओं के साथ सुसुप्ता अवस्था में रहते हैं। वे विरतचित्त होते हैं। ऐसे सन्तों की वाणियों में परमाणु ही बसते हैं।
इसीलिए किसी ने कहा है–
‘राजा, योगी, अगिन, जल इनसे रहे होशियार।’