☆ औघड़ की गठरी ☆
पाँचवीं भेंट
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चूँकि केदार सिंह स्वयं उस यात्रा में शरीक नहीं थे, इसलिये पखवारे भर का अन्तराल झट से भर गया। उन्हें केवल अपने आराध्य गुरुदेव की चर्चा पसन्द है। अतः कहानी में मोड़ देने के लिये उन्होंने कहा-“उनकी” किशोरावस्था खिलवाड़ मिजाजी थी। सोनपुर से लौटते समय ‘उनका’ खेल शुरु हो गया। लोग ‘उनकी’ आँखमिचौली में आ गये। सभी नौकरोही कई दिन बाद वाराणसी पहुँचे। ‘वे’ पटना से ट्रेन द्वारा काशी आ गये और बकुलिया बाग (नाटी इमली भरत मिलाप कालोनी) में हनुमान जी के मन्दिर के सामने अपना आसन डाल दिया। मेरे मुहल्ले का एक आदमी मुझे सन्देश दे गया-‘ऊ औघड़ तोहरे इहाँ आवलेन, तोहें बुलावत हऊँवन।” बस, मैं समझ गया और मेरे पैरों में जैसे पर जम गये।
मुझे यहाँ सिंह जी से पूछना पड़ा-“आप इतनी जल्दी कैसे बदल गये? क्या शादी और उड़ीसा वाली दुलहन की बात भूल गयी?”
केदार सिंह-“अरे यार पाँड़े जी! आप भी कमाल के है। हर छोटी-छोटी बात मुझसे उगिलवाना चाहते है। क्रोध तो मेहमान होता है और विचार धोखेबाज आदमी के व्यवहार का प्रत्यक्ष दर्शन। आप मानें या ना मानें दुनियाँ की हर चीज हर क्षण बदल रही है। इसीलिये इसे परिवर्तनशील कहा गया है। परिवर्तन प्रकृति का शरीर, परिवर्तनशीलता उसकी शोभा और सृष्टि का सौन्दर्य है। यहाँ अभिप्राय यह है कि ‘उनका’ साल-दो-साल का साथ मुझपर प्रभावी था। ‘उनके’ सोनपुर जाने के बाद या यूँ कहें ‘उनसे’ मुख मोड़ने के बाद तमाम नये-नये विचार मस्तिष्क में अलख जगा गये-आदमी को सूपवत जीना चाहिये। पछोरने की कला जिन्दगी की अनमोल सहेली है। आवेश को सबसे खतरनाक दोस्त मानना चाहिये। शांत होने के बाद यह भी ध्यान में आया कि राम के साथ सीता और कृष्ण के साथ राधा की भूमिका उपासनीय है, प्रकृति-पुरुष की झाँकी मिलती है। आज भी अनेक सिद्ध अपनी पत्नियों के साथ कमलवत जीवन व्यतीत करते हुए देखे जाते है। इन्हीं बातों के साथ मेरे विचार पलटा खा गये। ‘उनकी’ उड़ीसा की दुलहन से शादी करने वाली बात, कौआ कान ले गया जैसा मुहावरा बन गयी। अन्त में यही बात समझ में आयी कि गुरु को सुनना ही सब कुछ नहीं, उन्हें देखने के लिये गहरी आँख और समझने के लिये रेगिस्तानी प्यास चाहिये। गुरु की भाषा होती है तो सबकी किन्तु चाँदनी बनती है, केवल सच्चे शिष्य की ही।”
(54)क्रमशः—-:।।प, पू, अघोरेश्वर।।
।।।अघोर पीठ जन सेवा अभेद आश्रम ट्रस्ट।।।
।।।पोंड़ी दल्हा अकलतरा।।।