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कानून के हाथ लम्बे होते हैं, लेकिन…कुबेरों के नगरी आते आते कद बौना हो चला हैं

कानून के हाथ लम्बे होते हैं, लेकिन…कुबेरों के नगरी आते -आते कद बौना हो चला हैं-

यूँ हीं …

नज़रिया राजनीति से जरा हटके …

हिंदी फिल्मों में क़ानून की ताकत का अहसास करने के लिए अक्सर ये जुमला कहा जाता है – “कानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैं.” और होते भी हैं, फिल्म ख़त्म होते-होते कानून अपने लम्बे हाथों से अपराध को ख़त्म करके ‘हैपी एंडिंग’ कर देता है. लेकिन फिल्मों की सपनीली दुनिया से बहार निकल कर जब बात असलियत का होता है तो कानून की ये परिभाषा संदेह पैदा करता है.

पिछले कुछ समय में कई कानून को ठेंगा दिखाने वालें घोटालेबाजों को सलाखों के पीछे पहुँचते देखा है. जाते भी क्यों नहीं आखिर कानून के हाथ जो लम्बे हैं, लेकिन फिर भी एक बात समझ में नहीं आता क़ानून असली अपराधियों तक क्यों नहीं पहुँच पाता?

घोटालों के बड़े खिलाडियों की क़ानून से बढ़ता दूरी, कानून के हाथों की लम्बाई पर संदेह पैदा करता है.आखिर ये हाथ वाकई में लम्बे हैं या सिर्फ लम्बाई का अहसास करते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं की शोले फिल्म की तर्ज पर सत्ता के बड़े खिलाडियों ने ‘ठाकुर ये हाथ मुझे दे दे’ की तर्ज पर इनके हाथों में कटौती कर दी है. जो भी हो लेकिन कानून की वर्तमान हालत ने बॉलीवुड के उन दिवंगत लेखकों की आत्माओं में संकीर्ण भावना तो पैदा कर ही दी जिन्होंने इसको लम्बे हाथों से नवाजा था.

बहरहाल, कानून के हाथ भले ही कितने लम्बे हो जाएँ, लेकिन कभी भी ये सही जगह पर नहीं पहुँचते. इसके पीछे भी कुछ पुख्ता और तार्किक कारण है. श्वान कितना भी खतरनाक क्यों ना हो, मालिक को काटने में हिचकिचाता ज़रूर है. क्योंकि मालिक श्वान को पालता है, श्वान मालिक को नहीं. हाँ अगर श्वान पागल हो जाये तो वो फिर मालिक वालिक कुछ नहीं देखता. लेकिन ऐसी नौबत अभी यहाँ नहीं आया है.

कानून के हाथों की इस संदेहास्पद लम्बाई के पीछे एक कारण और है. दरअसल, आधुनिक कानून निर्माताओं ने अपना गणितीय योग्यता से पहले तो अपने और कानून के बीच की दूरी निकाला ही होगा. फिर अपने और घोटालों के बीच की नज़दीकी को उसमें से घटा कर कानून के हाथों की लम्बाई ज्ञात किया होगा. इसीलिए हर बार कानून के लम्बे हाथ घोटालों तक पहुँचते हैं लेकिन पुनः इन हाथों को 180 डिग्री पर घुमा दिया जाता है. कानून बस डिग्रियों में ही घूमता रह जाता है, अपना झुंझलाहट निकालने के लिए क़ानून के ‘लम्बे हाथ’ अपना सदुपयोग सिद्ध करने के लिए मजबूरन ‘छोटे लोगों’ के गिरेबान तक पहुँच जाते हैं और सत्ता में बैठे असली गुनहगार, घोटालेबाज हर बार की तरह अघोषित धर्म नगरी के बार में देर रात की पार्टियों में कहते देखे जाते हैं- “अरे जनाब,कानून तो अँधा होता है बहरा नहीं.”

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Gopal Krishna Naik

Editor in Chief Naik News Agency Group

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