लेख – जीने-मरने की ऋतु में घर की महक : शमीम शर्मा

हरियाणवी में एक गाली है—घर घुसड़ा। किसे पता था कि यह गाली एक दिन उपचार बन जायेगी। कोरोना से भयभीत एक-एक व्यक्ति घर में घुसा बैठा है और घर में विराजमान रहना ही कोरोना को जीतने का एकमात्र इलाज है। अपना बिल हो या घोसला, गुफा हो या घर, एक सुरक्षा का भाव तो छिपा ही रहता है। घर मां की गोद का-सा अहसास करवाता है। अस्पताल में भर्ती कोई मरीज जब कई दिनों बाद घर लौटता है तो उसके मुंह से एक ही वाक्य निकलता है कि अब पूरी तरह ठीक हो जाऊंगा क्योंकि घर जो आ गया हूं।
कई बार ताज्जुब होता है कि ततैया अथवा शहद की मक्खियां पूरा दिन पार्क, जंगल व खेतों में घूमकर कैसे उस पेड़ को पहचान लेती हैं जहां उसका छत्ता है। दिनभर शहर की गलियों में भटककर सांझ होते ही गाय-बछड़े भी अपने घर पहुंच जाते हैं। हर घर की एक महक होती है। दरअसल, घर की यह महक ही अपनी ओर खींच लेती है।
छप्पर, झोपड़ी, मकान, हवेली, कोठी, भवन, फ्लैट आदि हर जगह आज रोशनी और रौनक हो गई है। चाहे बहाना कोरोना का ही है, पर यह सत्य है कि जो घर सिर्फ रात को सोने के लिए ही खुला करते, आज वहां सूरज की धूप लग रही है। पुरानी कहावत है—जो सुख छज्जू के चैबारे, वो बलख ना बुखारे। हार-जीत कर, सब कुछ खोकर या रोकर या हाथ धोकर जब भी कोई अपने घर पहुंचता है तो अपार सुकून मिलता है। कोरोना की बदौलत जिन मर्दों ने कभी रसोई में घुसकर नहीं देखा था, वे रसोई में लहसुन-प्याज छील रहे हैं। अब तिया पांचा करने की जरूरत नहीं है। तीन-पांच यानी तीन मई तक सबको घरों में लाजि़मी तौर पर रहना ही होगा।
इस बार लड़ाई न अंग्रेजों से है न बाहरी आक्रान्ताओं से। न ऊंच-नीच की, न साम्प्रदायिकता की है, न वर्ग भेद की और न ही बेरोजगारी या महंगाई की। न ही राजनीतिक पार्टियों या सत्ता व सिंहासन के प्रश्न हैं। प्रश्न सिर्फ जीने-मरने का है। सबकी जान पर बन आई है। सबने जान हथेली पर ले रखी है और अपनी ही धकधक सुनने में लीन हैं।




