माँ

सहजता और सरलता में बसा है जीवन का आनंद

सहजता और सरलता में बसा है जीवन का आनंद

आइए,सरल,सहज और शीतल हो जाएं हम भी…

जीवन के विषय में प्रायः अनेक संवाद परस्पर चर्चाओं में बोले-सुने जाते हैं। यथा-‘जीवन क्षणभंगुर है’ , ‘जीवन का कोई ठिकाना नहीं है’ , ‘साँसों की डोर कब ऊपर वाला खींच लेगा’ आदि-आदि…। यह शत प्रतिशत सत्य भी है और ज्ञानी-अज्ञानी सभी इससे पूर्णतः वाकिफ़ हैं।

फिर भी हमारे जीवन में इतना कलह,द्वंद्व,ईर्ष्या और तेरा-मेरा आखिर क्यों है?आज किसी के पास सुख भरपूर हो सकता है, लेकिन शांति नहीं है।सब संग्रह में जो लगे हैं और प्रतिस्पर्धा के भाव से ग्रस्त हो चले है। एक अनवरत दौड़ है,जो कहीं रुकती ही नहीं है।

नतीजा,भौतिक साधन तो जुट जाते हैं,जो ‘सुविधा’ हैं,’सुकून’ नहीं।मन की शांति सुविधा या साधन में नहीं बसती, वह तो द्वंद्व से परे प्रेम और समभाव से जीने में ही मिलता है।

वस्तुतःजीवन का आनंद ही सहजता व सरलता में है।इसे छोड़कर हम जितना संसार(सांसारिक सुख-भोग)में घुलते -मिलते जाते हैं, जीवन उतना ही अशांत होते चला जाता है। यही अशांति जीवन को ऐसी जटिल पहेली बना देता है, जो मृत्यु तक नहीं सुलझता।

AD

भारतीय आद्य परम्परा में भी यही माना गया है कि जीवन का समग्र सुख सरल होने में है, द्वंद्वरहित होने में है, स्नेहयुक्त होने में है, सभी के लिए समदृष्टि सम्पन्न होने में है।

(म.प्र. के कामगारों के टोली के नन्हें बच्चे की किलकारी भुपदेवपुर पुलिस द्वारा भोजन देते ही-अन्नदाता की जय हो…)

ये स्थिति उपलब्ध होने के लिए अन्तर्मुख होना जरुरी है।मन और मस्तिष्क में से मन को वरीयता देने पर सही मायनों में सुख मिलता है। लेकिन सुख प्राप्ति के लिए हम जितना बहिर्मुख होते जाते हैं अर्थात् मस्तिष्क को सर्वोपरिता देते हैं, सुख उतना ही घटता जाता है और शनैः शनैः यह दुःख में परिवर्तित होने लगता है।कारण,हमने भौतिक सफलता अर्जित कर शरीर को तो सुखी कर लिया,लेकिन आत्मा का सुख तो छल-छद्म रहित निर्मलता में होने के कारण वह अतृप्त ही रहता है।परिणामतः जीवन में सुकून नहीं होता।मेरे दृष्टि में यह जीवन का भोग है, जीना नहीं। सच्चे अर्थों में जीवन तभी जिया जा सकता है,जब आत्मा तृप्त हो।तनिक गहराई से चिंतन तो करें,आप पायेंगे कि जीने के लिए बहुत कम वस्तुओं की आवश्यकता होता है। हम ‘थोड़े में अधिक’ का भाव रखकर जीवन जीयें,तो सुख के साथ शांति भी हासिल होगा।‘तेरे-मेरे’ को त्यागकर सहभाव को अपनाएं,तो जीवन का सच्चा आनंद प्राप्त होगा।स्मरण रखिये,इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भौतिक सुख की निरंतर लालसा से ग्रस्त रहकर नहीं उठाया जा सकता। यह आनंद तो निर्द्वंद्व व लालसारहित होकर सहज भाव से प्रत्येक क्षण और छोटी-छोटी बातों में रस लेकर ही उठाया जा सकता है।फिर भले ही वह बालकों के खेल हों,बहन की ठिठोली हो,भाई की शैतानी हो,पत्नी का रूठना हो,पति का मनाना हो,माँ,भाभी माँ का स्नेह दुलार हो,पिता की सलाह हो,मित्र की तकरार हो,पड़ोसियों की छेड़खानी हो-जीवन के प्रत्येक क्षण को अंतिम क्षण मानकर उसे सहज भाव से जीते चलने में ही जीवन का आनंद है।

AD

Show More

Gopal Krishna Naik

Editor in Chief Naik News Agency Group

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!