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दिल्ली के किसान बोले- ‘शर्तें मजबूत हो तो अनुबंध खेती घाटे का सौदा नहीं’

केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के खिलाफ सड़क पर किसानों की जंग जारी है। किसान संगठनों और सरकार के बीच वार्ता के कई दौर हुए भी हैं, लेकिन रजामंदी अभी नहीं बन सकी है। कृषि कानून में एक प्रावधान कांट्रैक्ट फार्मिंग या अनुबंध खेती का है।

ऐसे किसानों की राय, जो कर रहे हैं कांट्रैक्ट फार्मिंग, दिल्ली के किसानों ने बताया ठीक तो आंदोलन पर बैठे किसानों की राय अलग
इसके नफे-नुकसान पर सबकी अपनी-अपनी दलीलें हैं। इस सबके बीच अमर उजाला दिल्ली में उन किसानों के बीच पहुंचा, जो संविदा पर खेती कर रहे हैं। आप उन किसानों की राय, उन्हीं की जुबानी सुनिए….

नौकरी छोड़ शुरू की खेती, आज सुकून में पूरा परिवार
मैंने पॉलिटेक्निक कर रखी थी। चार-पांच साल रीयल एस्टेट व मोबाइल कंपनियों में नौकरी भी की, लेकिन काम ज्यादा रास नहीं आ रहा था। घरवालों से इस बारे में बात की। उनकी सलाह पर 2016 से खेती का पुश्तैनी काम संभालने लगा। एक साल खुद सब्जी उगाने का काम किया। इसमें बहुत दिक्कत समझ में आई। सारा टाइम खेत से मंडी और हिसाब-किताब में बीतता रहा। एक बारी इससे भी मन उबने लगा। तभी एक बड़ी के साथ कांटैक्ट करने का ऑफर मिला। तीन साल से उसके साथ काम कर रहा है। कभी कोई दिक्कत नहीं आई।

जोत हमारी तीन एकड़ की है। इस पर ऑरगेनिक खेती करता हूं। सीजन शुरू होने से पहले कंपनी हमें चार-पांच सब्जियां चुनने का विकल्प देती है। फसल होने वह इसे खरीद लेती है। सप्ताह में दो बार बुधवार व शुक्रवार को कंपनी पेमेंट कर देती है। जहां तक कीमत का सवाल है, हर सुबह इसका रेट आ जाता है। तीन सालों में अभी ऐसा कभी नहीं हुआ, जब बाजार भाव से कम पर सब्जी गई है। हमें हर दिन तीस से चालीस फीसदी ज्यादा कीमत मिलती है। इससे हम भी खुश हैं और हमारा परिवार भी।   – राहुल तवंर, पल्ल गांव, दिल्ली।

मशरूम का मिल रही ठीक कीमत, बाजार के उतार-चढ़ाव की भी चिंता नहीं
छह साल पहले की बात है। खेती उस वक्त फायदे का सौदा नहीं लग रही थी। सोच रहा ?था कि कुछ और किया जाए। इसी दौरान कुछ कंपनियां गांव में आईं। वह किसानों से कांट्रैक्ट करना चाहती थी। हमने भी सोचा कि एक बार इसे भी देखा जाए। हमने एक बड़ी कंपनी के साथ मशरूम की खेती करने का समझौता किया। कंपनी ने पहले से रेट फिक्स कर दिया। ए केटेगरी के एक कीमत और बी की दूसरी। पहले साल का अनुभव काफी उत्साहवर्धक रहा। इसके बाद से कांट्रैक्ट फार्मिंग का सिलसिला टूटा नहीं है।

हमारी अपनी जोत बहुत बड़ी नहीं है। तीन एकड़ में मशरूम की खेती करता हूं। सीजन शुरू होने से पहले कंपनी मशरूम का रेट तय कर देती है। इस साल 70 रुपये प्रति किलो की कीमत लगाई है। जबकि बाजार में मशरूम 30-120 के बीच बिकता है। रेट पहले तय होने और खेत पर ही खरीद होने से न तो बाजार की कीमत के उतार-चढ़ाव की चिंता है और न ही मंडी की रोजाना की भागदौड़। हमें पहले से ही हमारी आय भी पता है। इससे तयशुदा योजना पर घर-परिवार चल जाता है।    – संजय राजपूत, बख्तावरपुर

हम तो चाह रहे हैं कि कंपनियां धान-गेहूं का भी कांट्रैक्ट करें
दिल्ली का अपना अनुभव बता रहा हूं कि कांट्रैक्ट खेती छोटे, मझले और बड़े तीनों किसानों के ?लिए अच्छी है। अभी पिछले जब कीमत न मिलने से बख्तावरपुर के किसान राजेंद्र सिंह ने अपनी गोभी की फसल पर ट्रैक्टर चला दिया, तभी संविदा के किसानों की 10-12 रुपये प्रति किलो के हिसाब से गोभी बेची। पिछले साल के उलट इस साल हमने कांट्रैक्ट नहीं किया। वह इसलिए कि हमारी शर्त मानने को कंपनी तैयार नहीं थी। लेकिन संविदा न होने से हमें मंडी पर निर्भर रहना पड़ रहा है, जहां के हर रोज के अपने ही नखरे हैं।

सब्जियों के अलावा हम लोग तो चाह रहे हैं कि कंपनियां धान व गेहूं के लिए भी कांट्रैक्ट करें। इससे किसानों के पास विकल्प ज्यादा होगा। वह अपनी पसंद की फसल उगा सकेगा और मन मुता?बिक उसकी कीमत पा सकेगा।  फिलवक्त इसका सबसे बड़ा फायदा यही दिख रहा है कि विकल्पों के साथ किसान को अपनी फसल की अच्छी कीमत मिल रही है। उसे न कीमतों के उतार-चढ़ाव की मार पड़ रही है और न ही मंडी और खेत के बीच चक्कर लगाने की।
– पप्पन सिंह गहलोत, तिगीपुर गांव

आंदोलन कर रहे किसानों की राय है दिल्ली से उलटी
पहले हमने भी एक बड़ी कंपनी से करार किया था। आलू की उपज कंपनी का देनी थी। पहले दो-तीन साल तो ठीक चला, लेकिन उसके बाद कंपनी के नए-नए नखरे सुनने पड़े। कंपनी का आदमी अपने स्टोर रूम के गेट पर मिल जाता है। क्वालिटी के नाम पर वह हम जैसे छोटे किसानों को तो वह गेट पास भी नहीं देता था। सीधे मुंह बात तक नहीं करता था। कई बार हमें अपना आलू पानी के भाव बेचना पड़ा।

तंग आकर हमने दो साल में ही करार खत्म कर दिया। अब खुद अपनी खेती करता हूं। हां, बड़े किसानों के साथ थोड़ी सहूलियत है। उसका करोड़ों का करोबार है, तो उसे लाख-दो लाख रुपये इधर-उधर देने में दिक्कत नही रहती। वह जांच अधिकारियों से सेटिंग कर अपना सामान दे देता है। लेकिन छोटे किसानों के लिए यह सहूलियत नहीं है।    – बुराड़ी में आंदोलन कर रहे पंजाब के किसान- सबरजीत सिंह

एक्सपर्ट की राय, कांट्रैक्ट खेती ठीक, संविदा का लागू करवा ले जाना जरूरी
कांट्रैक्ट खेती हर तरह की जोतों के लिए ठीक रहती है। दोनों की रजामंदी से इसमें किसान और कंपनी के बीच करार होता है। किसान का पैसा व तकनीक मिल जाती है, जबकि ठेकेदार को माल। अब अगर बीच में किसी को लालच आ जाए तो संविदा विवाद सुलझाने की अवसर देती है। अगर इसकी शर्तों को सही तरीके से लागू करवा लिया जाए तो कोई दिक्कत नहीं होगी। हालांकि, अपने ईव ऑफ डूइंग बिजनेस की लिस्ट में सबसे खराब प्रदर्शन संविदाओं को लागू करवा पाना होता है। समस्या संविदा खेती नहीं, संविदा को लागू करवाने पर है।

और दूसरी बात, कांट्रैक्ट खेती पर बात करते वक्त हमें कॉरपोरेट खेती से अलग करके देखना होगा। अध्ययन बताते हैं कि अपने देश में कॉरपोरेट खेती ज्यादा फायदेमंद नहीं रही है। इसकी जगह कांट्रैक्ट खेती का भविष्य बेहतर हो सकता है।

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