संज्ञाशून्य अवस्था
उसने नम्र निवेदन के साथ जिज्ञासा की गुरुदेव! संज्ञाशून्य अवस्था जीवन में एक सन्त सज्जन प्राणी को क्या उपलब्ध कराती है।
मैनें उससे स्नेहपूर्वक कहा– अरे मुड़िया साधु! तुमने तो बहुत सत्संग किया है। मेरी वाणियों का संग्रह भी किया है। संज्ञाशून्य अवस्था में चाहे वह बोधगम्य हो या अबोधगम्य हो किसी प्रकार की तरंगे नहीं उठती है। योगीजन संज्ञा शून्य अवस्था में अवस्थित होने के लिए हर प्रयत्न करते हैं। किन्तु यह अवस्था न तो करने से प्राप्त होती है और न न करने से प्राप्त होती है। गुरु की कृपा अपना उत्तम संस्कार अपनी पवित्र साधना एकाएक अपने आप ‘काक तालिवत उस अवस्था उस अवस्था को प्राप्त करा देती है। जो संज्ञाशून्य शब्द से सम्बोधित की जाती है। संज्ञाशून्य अवस्था ‘समाधि चित्त’ को कहते हैं। जिस किसी को ऐसी अवस्था नित्यप्रति होने लगे उसे किसी भी प्रकार की वेदना नहीं होती। वेदना प्रत्येक दुःख की हर प्रकार के दुःख की जननी है। शील समाधि संज्ञाशून्य स्थिति सबको नहीं होती है। एक करोड़ में कोई कोई ही इस अवस्था को पार करता है। यह अवस्था प्राप्त होने पर तितिक्षा बिल्कुल जाती रहती है। हर इन्द्रिय को और मन को भी तृप्ति प्राप्त होती है। ऐसी तृप्ति को अपना मन भी स्वीकार करता है। संज्ञाशून्य सन्त को यह सारा जगत बिल्कुल अभावमय जान पड़ता है, सम्पूर्ण जगत के हर क्रियाकलाप का अभाव हो जाता है मैं राजा हूँ। मैं रंक हूँ। मैं विशेष महापुरुषों की श्रेणी में गिना जाता हूँ। यह उसको बिल्कुल नहीं भासता किसको? संज्ञाशून्य अवस्था प्राप्त सन्त को। आगम और निगम से घिरे रहने पर भी उसे उसकी वेदना नहीं भासती उपासना का यही अभिप्राय है।
मुड़िया साधु! वह उस प्राणमयी के स्थान के समीप बैठने के सरीखा, कपालेश्वर औघड़- अघोरेश्वरों के समकालीन होने सरीखा होता है, क्या होता है? किसको होता है? संज्ञाशून्य अवस्था होती है, उस अवस्था को प्राप्त व्यक्ति की।
अपने स्वभाव का परित्याग नहीं कर सकते…
बहुत से ऐसे प्राणी हैं जो नशीले पदार्थों को ग्रहण कर संज्ञाशून्य अवस्था में पहुँचने का प्रयास करते हैं किन्तु संज्ञाशून्य न होकर वे अनेक झूठ सच विचारों के प्रवाह में अपने को देखते हैं और अपने मूल्यवान समय और गौरवमय जीवन को गौरवहीन कृत्यों में नष्ट करने से अपने आप को नहीं रोक पाते हैं। संज्ञाशून्य स्थिति की अनुभूति तुम्हें है। मैनें कितनी बार तुम्हें इस अवस्था में देखा है। तुम यहाँ मेरे समीप बैठकर मेरे वचनों को सुनते-सुनते कभी-कभी संज्ञाशून्य हो जाते हो। उस अवस्था से उपराम होते ही कह बैठते हो– हाँ गुरुदेव! क्या कहा गया समझ में नहीं आया इसका अर्थ है कि उतनी देर तक तुम संज्ञाशून्य अवस्था में स्थित थे। इस अवस्था में रहने पर तुममें किसी भी ओर से न तरंग उत्पन्न हुआ होगा, न कम्पन हुआ होगा, न आह्लाद हुआ होगा, न लाभ हानि की भावना हुई होगी, न राग उत्पन्न हुआ होगा। संज्ञाशून्य अवस्था से विरत होने पर तुम्हें जान पड़ता है कि सब शून्य था, बराबर था। अपने पूर्वकृत पुण्य और गुरुदेव की कृपा इस स्थिति में पहुँचा देती है। ऐसा मालूम होता है। तुमने यह स्थिति प्राप्त कर ली है। तुम्हारे लिये यह समझना परम आवश्यक है कि क्यों अब तू विशाल वटवृक्ष की छाया देने वाला सरीखा हो गये हो। इस उपलब्धि को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए। यह संग दोष से भी जा सकती है। इसकी संभावना है। यह सत्संग के गुणों से आ सकती है। इसकी भी संभावना है। मुड़िया साधु! अब तुम्हें नख से शिख तक, शिखा तक अनागामी फल भोगने वालों की प्रताड़ना कितनी भी हो किसी प्रकार की हो प्रभावित नहीं कर सकेगी। इसके साथ साथ तुम्हारे लिए और कुछ भी जानना सीखना समझना बहुत ही युक्तिसंगत होगा। क्योंकि तुम्हें हर समाज में हर प्रकार के मनुष्य की आकृति में दीखने वाले दीखते हैं। इसलिए तुम्हारे लिए यह सब जानना और समझना आवश्यक है। यदि मेंढ़क को जिसे केतकी के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। रुई के फाहा के इत्र-सुगन्धि लगाकर भी रखो तब भी वह उछल कर कीचड़ में ही चला जाता है। वह अपने उस गुण स्वभाव को नहीं छोड़ सकता। इसी प्रकार शूकर श्वान भी अपने स्वभाव का परित्याग नहीं कर सकते, वे कीचड़ में ही जा बैठते हैं। ये गन्दे त्याज्य वस्तुओं को प्रिय मान बैठते हैं। यही कारण है कि एक करोड़ में कोई-कोई ही संज्ञा शून्य अवस्था अर्थात ब्रह्म के साथ तल्लीनता प्राप्त कर पाता है विवेक के साथ उन सहज गुणों को ग्रहण कर बैठता है। वही सन्त महात्मा औघड़ अघोरेश्वर कहा जाता है मुड़िया साधु! जो पदार्थ सिर्फ दो इंच की जीभ तक स्वादिष्ट लगता है और उससे नीचे उतर जाने पर मलमूत्र के समान हो जाता है, उसे मलमूत्र की संज्ञा से ही सम्बोधित किया जाता है। इस प्रकार संग दोष इतना देने सदृश होता है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। देखते नहीं वे लोग मेवा मिष्ठान को कितना सजा कर रखते हैं, किन्तु जब उसे मुख में डाल लेते हैं तो वह मलमूत्र सरीखा हो जाता है उसी प्रकार दुष्कृत्य वाले के संग दोष से यह संज्ञा प्राप्त होती है। पूछो, संग से दोष लग ही जाता है।
।।प, पू, अघोरेश्वर।।
।।।अघोर पीठ जन सेवा अभेद आश्रम ट्रस्ट।।।
।।।पोंड़ी दल्हा अकलतरा।।।