गुरु उसके बैखरी खोल
गुरु उसके बैखरी खोल …
@ अकलतरा श्याम केडिया जी✍
मुड़िया साधु! तुम एक सामान्य बात समझ लो। जिन मनुष्यों का चरित्र, आचरण और व्यवहार जैसा होता है, जनदृष्टि में वे वैसे ही देखे और सुने जाते हैं।
जो सज्जनों के कृत्यों को अपने जीवन पथ का आदर्श मानकर तद् वत आचरण करते हैं, वे सज्जनों की दृष्टि में सज्जन समझे जाते हैं।
जो दुर्जनों के कृत्यों में अपने आपको मूर्त करते हैं, वे अपनी दृष्टि में भी ग्लानि के पात्र होते हैं और जनदृष्टि में भी पतित देखे और सुने जाते हैं। यदि मनुष्य चाहे तो वह परोक्ष की जो महाशक्ति है, उसे यानी बाह्य जगत में जितना कुछ हो रहा है, उस सबको अपने महामस्तिष्क में, स्मृति में पिरोकर रख सकेगा और जब चाहे उसे अभिव्यक्त भी कर सकेगा। फिर भी, अघोरेश्वर, संतों के सानिध्य और संग में रहकर, जानने और सुनने के बाद भी, बहुत से व्यक्तियों को अभिव्यक्ति की शक्ति नहीं प्राप्त होती है। इसमें भी, इसका भी, एक रहस्य है। गुरु में अनास्था के कारण ऐसा होता है। आस्था के अभाव ने उनको कुण्ठित कर रखा है।
जिस शिष्य की गुरु में पुर्ण आस्था है, गुरु उसकी बैखरी खोल देते हैं, और तब वह दस वर्ष पहले की बातों को, पहचानों को, अक्षरशः कहता जाता है। यही न ईश्वरीय, तत्सम गति का परिचायक है। श्रोतापन से निस्सृत यह श्रोत अपने आप में आता है। उससे भी अधिक शब्द मनुष्य के मस्तिष्क में रहते हैं। मानव मस्तिष्क में जितनी बातें हैं, उतनी कम्प्यूटर (computer) में भी नहीं है।
जो अथाह हैं, थाहे नहीं जा सकते, वे अघोर, औघड़, अघोरेश्वर, अयोनि-जन्मा सरीखे होते हैं।
जैसे — किसी के घर में कोई बच्चा उत्पन्न हो तो वह समझ ले कि वह बच्चा अमुक माँ के गर्भ से उत्पन्न हुआ है, तो यह सही नहीं होगा। उसी पिण्डमय, पंच तत्वमय शरीर में जो आत्मा है, प्राण है, वह आगे चलकर विकसित होने पर अपूर्ण मनुष्य के कृत्यों से आच्छादित, सन्त, महात्मा, विद्वान, औघड़, अघोरेश्वर के आदर्श आचरण से परिपूर्ण, अजन्मा कहा जाता है। यह बड़ा ही गुप्त रहस्य है।
इन औघड़ अघोरेश्वरों की आत्मा वायुमण्डल से, उच्च या सामान्य कुल की सत्यवती, तपस्विनी नारी के गर्भ से उत्पन्न बालक के शरीर में प्रविष्ट करती है। ‘बरबरनी’, निन्द्नीय कृत्यों में संलग्न, नारी के गर्भ से कामाग्नि बुझाने के प्रयत्न में जन्म लिया शिशु हर मर्यादा को भंग करने वाला, कुलघातक होता है। उसे सौंदर्य से अरुचि रहती है। वह अभद्र होती है। जो पूर्ण मानव की मानवता से सम्पन्न जन्म धारण करते हैं और जिनमें महान आत्माओं का प्रवेश होता है, वे सौन्दर्य की सुमधुर किरणों को, उसकी आभा को, सहज में समझते हैं, देखते हैं, जानते हैं, उससे आनंदित होते हैं। सौंदर्य एक ऐसी वस्तु है, जो प्रत्येक मनुष्य के अभ्यन्तर में कला के रुप में, विद्या के रुप में विद्यमान है। मंगलमय, शुभ वाणियों की सार्थकता सिद्ध करने वाले कृत्यों में इन महान आत्माओं का अधिकार होता है। वे उनके अधिकारी होते हैं और वे अभीष्ट को प्राप्त भी करते हैं। ये यत्र, तत्र सर्वत्र साग-सब्जियों के ढेर की तरह नहीं होते हैं। वे अतौल होते हैं। वे महामूल्यवान होते हैं।
वे कभी-कभी किसी-किसी स्थान में समाज के, देश के, रत्न के रुप में देखे, समझे, जाने जाते हैं…