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वो छह सियासी चेहरे, जो अलविदा हो रहे 2020 में भारतीय राजनीति में छाए रहे

अलविदा हो रहे साल 2020 में भारत समेत दुनियाभर में कोरोना वायरस का संकट छाया रहा। पूरा साल लोग महामारी से जूझते रहे। कोरोना के चलते लोगों के रहन-सहन में खासा परिवर्तन देखने को मिला, लेकिन उनकी जिंदगी का पहिया समान रूप से चलता रहा। वहीं, अगर बात करें भारतीय राजनीति की तो इस साल महामारी के बीच तमाम सुरक्षा मुहैया कराते हुए बिहार चुनाव हुआ, जिसके लिए चुनाव आयोग की वाहवाही भी हुई। इस साल कुछ नए धुरंधरों ने भारतीय राजनीति के फलक पर उभरने में कामयाबी पाई।

2020 की शुरुआत होते ही भाजपा की कमान जेपी नड्डा को सौंपी गई। बिहार में मिली सफलता के जरिए उन्होंने अपने नेतृत्व का परिचय दिया। इसी चुनाव में तेजस्वी यादव को नई पहचान मिली, जिन्होंने पिता लालू यादव की गैर मौजूदगी में डटकर मुकाबला किया। दूसरी तरफ, हैदराबाद से निकलकर असदुद्दीन ओवैसी ने अन्य राज्यों के मुस्लिमों के बीच अपनी पैठ बनाई। वहीं, अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की सत्ता में हैट्रिक लगाकर खुद को किंग साबित किया।
जेपी नड्डा

जेपी नड्डा – 
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने ऐतिहासिक कार्यकाल के बाद जनवरी में भाजपा अध्यक्ष की जिम्मेदारी जेपी नड्डा को सौंपी। अप्रैल महीने में भाजपा के स्थापना दिवस के मौके पर नड्डा को आधिकारिक रूप से पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। हालांकि, वह अमित शाह के गृह मंत्री बनने के बाद से ही भाजपा की कमान संभाले हुए थे। नड्डा के नेतृत्व में फरवरी में दिल्ली में हुए चुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। लेकिन इसके बाद बिहार विधानसभा चुनाव और हैदराबाद निकाय चुनाव में शानदार प्रदर्शन कर उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व का नमूना पेश किया। दोनों ही जगहों पर भाजपा की राह आसान नहीं थी। बिहार में जहां नीतीश कुमार सत्ताविरोधी लहर का सामना कर रहे थे, वहीं हैदराबाद निकाय चुनाव में भाजपा का बीता प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। इसके अलावा नड्डा के नेतृत्व में गुजरात, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश सहित अन्य राज्यों में हुए उपचुनाव में भी भाजपा को जीत हासिल हुई। वहीं, अब उनके सामने अगली चुनौती बंगाल जीतने की है, जहां भाजपा सीधे तौर पर टीएमसी को टक्कर देते हुए नजर आ रही है।
असदुद्दीन ओवैसी

असदुद्दीन ओवैसी
अगर यह साल किसी के लिए सबसे ज्यादा कामयाबी वाला रहा है, तो वह ऑल इंडिया मजलिस-ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी के लिए। इसके पीछे की वजह बिहार में पार्टी को मिली जीत है। ओवैसी की एआईएमआईएम ने बिहार के मुस्लिम बहुल सीमांचल इलाके में पांच विधानसभा सीटों को जीतकर सभी को हैरान कर दिया। इस तरह पार्टी ने धीरे-धीरे मुस्लिम मतदाताओं में अपनी पैठ बनाना शुरू कर दिया है। बिहार चुनाव परिणाम के बाद एआईएमआईएम मुसलमानों की अखिल भारतीय स्तर की पार्टी बनकर उभर रही है। पार्टी अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी मुस्लिम समुदाय के बड़े नेता के तौर पर उभर रहे हैं। हैदराबाद निकाय चुनाव में भाजपा की जबरदस्त घेराबंदी के बाद भी ओवैसी ने अपनी सीटें बचाई हैं। बिहार के नतीजों से गदगद ओवैसी ने अब पार्टी को राष्ट्रीय फलक पर ले जाने का सपना संजोया हुआ है। अब उनकी नजर पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और राजस्थान सहित तमाम राज्यों पर है। वहीं, मुस्लिम समुदाय भी उनकी राजनीति से खासा प्रभावित होकर पार्टी से जुड़ रहा है।
तेजस्वी यादव

तेजस्वी यादव 
बिहार की राजनीति के युवा नेता तेजस्वी यादव ने साल 2020 में दिखाया कि उनमें कितना सियासी दम है। बिहार चुनाव में तेजस्वी का दम तो राज्य ने देखा ही, लेकिन देश ने भी एक युवा नेता की हुंकार देखी। पिता लालू यादव की अनुपस्थिति और 2019 के लोकसभा चुनाव में मिली हार के चलते राजनीतिक विश्लेषकों को लग रहा था कि राजद बिहार विधानसभा चुनाव में कुछ खास नहीं कर पाएगी। हालांकि, चुनाव की तारीख नजदीक आते ही जिस तरह तेजस्वी ने अपने चुनाव प्रचार की गाड़ी का गियर बदला उससे सभी हैरान थे। तेजस्वी ने महागठबंधन की तरफ से अकेले ही चुनाव प्रचारक की कमान संभाली और चुनाव का एजेंडा ऐसा सेट किया कि माहौल उनके पक्ष में बन गया। हर रोज 15 से 16 रैलियों को संबोधित करने का फल उन्हें 75 सीटों के साथ मिला। हालांकि, महागठबंधन सरकार बनाने में विफल रहााा, लेकिन राजद 75 सीटों के साथ राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। वहीं, करीब 10 सीटें ऐसी रहीं, जहां हार-जीत का अंतर मामूली था। तेजस्वी ने जिस तरह सियासी बिसात बिछाई, ये उसी का नतीजा था कि 243 सीटों में एनडीए को बहुमत से सिर्फ दो ज्यादा 125 सीटें हासिल हुईं। राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन को 110 सीटों पर संतोष करना पड़ा। हालांकि, तेजस्वी ने इस बात का सबूत दिया कि उनमें राष्ट्रीय स्तर का नेता बनने के सभी गुण मौजूद हैं।
सचिन पायलट

सचिन पायलट 
मध्यप्रदेश के बाद इस साल राजस्थान में सियासी संकट देखने को मिला। राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ सचिन पायलट ने बगावत का झंडा उठाया। इससे पूरे कांग्रेस में सनसनी फैल गई। पायलट ने करीब एक महीने तक अपने 20 समर्थक विधायकों संग हरियाणा के गुरुग्राम में डेरा जमाया। लगने लगा कि मध्यप्रदेश में जिस तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा बगावत के बाद कमलनाथ को सत्ता गंवानी पड़ी, क्या ऐसा ही हाल अशोक गहलोत का होने वाला है। हालांकि, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक अलग तरह की चाल चलते हुए अपने समर्थक विधायकों संग दूसरे होटल में डेरा जमाया। कांग्रेस की नैया अधर में लटकती हुई नजर आ रही थी, क्योंकि पायलट के समर्थक विधायक राज्य में लौटने को राजी नहीं थे। कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने पायलट का खुलकर समर्थन किया। वहीं, कांग्रेस के डूबते जहाज को बचाने के लिए राहुल गांधी और प्रियंका गांधी आगे आए। दोनों के हस्तक्षेप के बाद जाकर सचिन पायलट राजी हुए। हालांकि इस बगावत में पायलट को मंत्री पद से लेकर प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी तक गंवानी पड़ी।
अरविंद केजरीवाल

अरविंद केजरीवाल 
2019 में हुए लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। दिल्ली की सत्ता में काबिज होने के बाद भी लोकसभा की सात सीटों में से एक पर भी पार्टी को जीत नहीं मिली। ऐसे में साल 2020 अरविंद केजरीवाल और आप दोनों के लिए ही महत्वपूर्ण था, क्योंकि इस साल राज्य में विधानसभा चुनाव होना था। नागरिकता कानून के विरोध में दिल्ली समेत देश भर में जनवरी में 2020 में प्रदर्शन चल रहे थे। दिल्ली का शाहीनबाग आंदोलन इसका सबसे बड़ा केंद्र था। इसे लेकर बार-बार केजरीवाल पर निशाना साधा गया। वहीं, केजरीवाल ने लोकसभा की हार का गम भुलाते हुए और अपने आलोचकों का मुंह बंद करते हुए दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 62 सीटों पर जीत हासिल कर सरकार का गठन किया। वहीं, सात लोकसभा सीटें जीतने वाली भाजपा को महज आठ सीटों से ही संतोष करना पड़ा। कांग्रेस की और भी बुरी दुर्दशा रही, पार्टी का खाता भी नहीं खुल सका। केजरीवाल की सियासत के लिए अहम माने जाने वाले चुनाव में उन्होंने जीत के साथ फिर से सीएम पद की शपथ ली। वहीं, अब इस जीत के साथ केजरीवाल के हौसले बुलंद हैं और वह यूपी, गुजरात और गोवा में भी ताल ठोंकने की तैयारी कर रहे हैं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया

ज्योतिरादित्य सिंधिया 
भारत में साल 2020 में हुई राजनीतिक चेहरों की चर्चा हो और ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम न आए, यह नहीं हो सकता है। इस साल मध्यप्रदेश में अलग ही तरीके से सत्ता परिवर्तन हुआ और इसके पीछे जिम्मेदार रहे कभी कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया। सिंधिया ने कमलनाथ से नाराजगी के चलते भाजपा का दामन थामा और अपने साथ इतने विधायक भाजपा में ले आए कि कमलनाथ की सरकार ही गिर गई और शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन गई। इस साल मार्च में ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक कांग्रेस के 22 विधायक त्यागपत्र देकर भाजपा में शामिल हो गए थे। इसकी वजह से प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार अल्पमत में आ गई थी, जिसके कारण कमलनाथ ने 20 मार्च को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद 23 मार्च को शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बनी। इसके बाद कांग्रेस के तीन अन्य विधायक भी कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए थे।

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