भारत जैसे विविधता भरे देश को ‘पीस जर्नलिज्म’ की जरूरत, पत्रकारिता केवल एक पेशा नहीं: विजय दर्डा
पुणे: भारत जैसे बहुधर्मीय, बहुजातीय, बहुभाषी और सांस्कृतिक विविधता वाले देश को केवल तथ्य आधारित या जर्नलिज्म ऑफ पीस के साथ-साथ पीस जर्नलिज्म की सबसे ज्यादा जरूरत है. एमआईटी वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी, पुणे की दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में मीडिया व पत्रकारिता और ”विश्व में शांति की संस्कृति के प्रसार में मीडिया की भूमिका” विषय पर मार्गदर्शन करते हुए लोकमत मीडिया के एडिटोरियल बोर्ड चेयरमैन व पूर्व राज्यसभा सांसद विजय दर्डा ने गुरुवार को यह विचार व्यक्त किए.
दर्डा ने कहा कि हमें पीस जर्नलिज्म करना चाहिए जिसमें हम संघर्ष के मूल कारण की तह तक जाते हैं, हर समस्या का अध्ययन करते हैं, विश्लेषण करते हैं और अंत में उसका संभावित हल खोज निकालते हैं. इस तरह की पत्रकारिता आज दुनिया में नई है और बहुत ज्यादा चुनौतीपूर्ण भी. इस नई सोच को हमारे देश में जड़ें मजबूत करने में अभी काफी वक्त लगेगा.
पीस जर्नलिज्म फिलहाल भारत में शैशव अवस्था में
उन्होंने कहा कि मेरी राय में पीस जर्नलिज्म फिलहाल भारत में शैशव या नवजात अवस्था में है. हमें कोशिश करनी होगी कि यह विकसित हो और लाभदायक हो. यह हमें केवल तथ्य और आंकड़ों से भी ऊपर उठकर मामले के हल उपलब्ध कराए. बीबीसी के कुछ पत्रकारों के अलावा कुछ मीडिया घरानों ने भी पीस जर्नलिज्म को अपनाना शुरू कर दिया है. हालांकि यह अभी प्रारंभिक चरण में है.
धर्म-नस्ल संघर्ष की जड़ दर्डा ने कहा, ”हम इस बात को चाहे स्वीकारें या न स्वीकारें, लेकिन आज दुनिया में मौजूद सभी खतरनाक संघर्षों की जड़ें धर्म और नस्ल में ही हैं, जिनमें कई देशों में बड़े पैमाने पर हिंसा और तबाही मची हुई है. फिर वह म्यांमार हो, नाइजीरिया हो, इजराइल या फिर सीरिया, अशांति या गृहयुद्ध का मूल धर्म, संस्कृति और आस्था है. यह देश आज भी धर्मों के बीच की लड़ाई या गृहयुद्ध से गुजर रहे हैं, जिसमें हजारों लोगों की मौत हो चुकी है और लाखों बच्चे अनाथ हो चुके हैं, लाखों बेघर हो चुके हैं. इस दौरान बलात्कार, यातना और हजारों पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के कत्ल जैसे जघन्य अपराध देखने को मिल रहे हैं. वजह क्या है?”
दर्डा ने कहा कि आखिर पूरी दुनिया में देखने को मिल रही इस तबाही और मानवीय त्रासदी की वजह क्या है? आखिर इस बेमतलब की हिंसा का कारण क्या है? और हम दुनिया के कोने-कोने में फैली इस बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और विचलित कर देने वाली परिस्थिति से कैसे निपट सकते हैं ? आखिर लोगों में यह भावना क्यों घर करती जा रही है कि किसी समस्या या धार्मिक संघर्ष को सुलझाने की बजाय मीडिया उसकी आग को अधिकांशतया भड़काने का ही काम करती है? क्या ऐसे संघर्ष को सुलझाना पत्रकारिता के कुलीन पेशे का हिस्सा नहीं है?
एक ये सवाल सताता है हमें
दर्डा ने मीडिया का पक्ष रखते हुए कहा कि यह सवाल मीडिया की दुनिया में मौजूद हम सभी लोगों को सताता है, क्योंकि ऐसी अप्रिय और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की, घटनास्थल पर मौजूदगी या सरकारी या सार्वजनिक स्रोतों से मिली जानकारी के आधार पर, हम महज रिपोर्टिंग करते हैं. हम तो बस यह जानकारी देते हैं कि कितने लोग मारे गए, कौन सा समुदाय शामिल था, प्रभावित हुआ, कितने घरों को नुकसान पहुंचा और यह कैसे संघर्ष में शामिल समुदायों के भविष्य के संबंधों को प्रभावित करेगा. हम केवल तथ्य, आंकड़े, मृतक संख्या या नुकसान की व्यापकता, बेघर हुए लोग-बच्चों की जानकारी देते हैं, हम अपना कर्तव्य निभा रहे हैं.
पूर्व राज्यसभा सांसद नेकहा कि इसमें कोई शक नहीं कि यह करके हम जहां अपने पत्रकारिता धर्म को निभा रहे हैं, वहीं हम जवाबदेह पत्रकार की जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर रहे. किसी संघर्ष या युद्ध के दौरान केवल तथ्य और आंकड़े देकर हम जिस तरह की पत्रकारिता कर रहे हैं, उसे मैं ”वॉर जर्नलिज्म” की संज्ञा देना चाहूंगा. हम उस तरह की पत्रकारिता नहीं कर रहे जो ऐसी परिस्थितियों में की जानी चाहिए.
दर्डा ने सवाल दागा कि हम किस तरह की पत्रकारिता कर रहे हैं? निश्चित ही वर्तमान की ”वॉर जर्नलिज्म” नहीं या फिर ”जर्नलिज्म ऑफ पीस?” भीषण धार्मिक युद्ध या सांप्रदायिक हिंसा से उपजी समस्या में ”पीस जर्नलिज्म” की जरूरत है. तो ऐसे में मौलिक सवाल उठता है कि आखिर यह ”पीस जर्नलिज्म” है क्या और तथ्यों पर आधारित पत्रकारिता और जर्नलिज्म ऑफ पीस ही पर्याप्त क्यों नहीं?
अपने उठाए सवालों का जवाब देते हुए दर्डा ने कहा कि जब हम तथ्यों पर आधारित पत्रकारिता (फैक्चुअल जर्नलिज्म) करते हैं तो हम तथ्य, आंकड़े और घटना किस तरह से हुई, इस बात का खुलासा करते हैं. जब हम जर्नलिज्म ऑफ पीस करते हैं तो हम खुद को ऐसी किसी भी टिप्पणी या जानकारी को सार्वजनिक करने से टालते हैं जो परिस्थिति को और बिगाड़ दे. ज्यादा से ज्यादा हम संघर्षरत दोनों गुटों से शांति की अपील करते हैं.
‘हमारे पास गांधीजी हैं’
एक बार पाकिस्तान के दौरे पर मुझसे सवाल पूछा गया कि भारत और पाकिस्तान में क्या फर्क है? मैंने दो टूक जवाब दिया कि हमारे पास गांधीजी हैं, हमारे यहां प्रेस की आजादी है और हमारे देश के नेता कभी देशहित के खिलाफ काम नहीं करते. जब चाय के वक्त मुशर्रफ (जो उस वक्त पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे) ने मुझसे कहा कि जनाब आपने तो कह दिया कि हमारे पास गांधीजी जैसा कोई नहीं है. मैंने कहा कि जिन्ना की तुलना गांधीजी से नहीं की जा सकती. गांधीजी शांति के , अहिंसा के प्रतीक हैं.
कैसे कहलाएंगे गांधीजी का देश
हम इसे हमारे देश की जड़ों तक पहुंचा सके तो यह समाज की, देश की बहुत बड़ी सेवा होगी. अगर हमने इस आदर्श स्थिति की दिशा में काम नहीं किया तो हम गांधीजी का, महावीरजी का, महात्मा बुद्ध का देश कैसे कहलाएंगे? पत्रकारिता के कुलीन पेशे के अस्तित्व में आने के बाद से दुनियाभर के पत्रकारों के लिए धर्म सबसे संवेदनशील विषय रहा है. मैं पत्रकारिता महज पेशा नहीं बल्कि देश की सेवा कहूंगा
हमें आदर्शवाद से नहीं घबराना चाहिए
डेनमार्क की मैनेज मैगजीन की एडिटर इन चीफ विबेके बोंसगार्ड ने कहा कि विजय दर्डा ने पीस जर्नलिज्म पर जो कहा, मैं उसमें कुछ और जोड़ना चाहती हूं. हमें आदर्शवाद से घबराना नहीं चाहिए. हम बहुत वक्त से कहते आए हैं कि स्थिति नहीं बदल सकती, लेकिन पिछले छह महीने में हमारा पूरा ग्रह बदल गया है. इसलिए आदर्शवाद को राह की बाधा न बनने दें. पीस जर्नलिज्म पर हम कुछ हल जोड़ सकते हैं और आपसे (विजय दर्डा) मिले सबक को अपनाकर समस्याओं का सामना कर सकते हैं.