राम-नाम नामक मणि को अपने साथ हमेशा रखें…
पिछला दो वर्ष कुछ अच्छा नहीं बीता और अभी भी समय अच्छा तो नहीं ही चल रहा है। लेकिन फिर भी हमारी आस्था, विश्वास, हमारे संस्कार, हमारे कर्म यहाँ तक ले आते हैं। यहाँ पर आने के पश्चात् हमलोगों ने जो भी बातें आप सभी के मुख से हमने सुनीं वह सब अघोरेश्वर महाप्रभु की वाणियाँ हैं जो हमारे अघोर ग्रंथावली में लिखी हुई हैं। आशा है इन सबको हमलोग ग्रहण करेंगे, नहीं तो हमारा यहाँ दूर-दूर से आना, रहना, अपना समय देना हो सकता है कि व्यर्थ चला जाय।
आज के इस चकाचौंध भरे भौतिक युग में हमलोगों की भौतिक उन्नति तो हुई है, लेकिन हम अपने संस्कार, अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों की दी हुई सीख को कदापि न भूलें। आज के समय में हम बहुत सी चीजों का रसास्वादन करते रहते हैं लेकिन हमारी रसना राम-नाम के रसास्वादन से वंचित रह जाती है।
हमारा यह शरीर भी एक दिन काल-कवलित हो जाता है और जिसके मोह में पड़ के हर तरह के भौतिकता की चकाचौंध में अंधे होकर कृत्य-अकृत्य हम करते हैं वह भी काल-कवलित हो जायेगा। हमारे द्वारा बनाए गए बड़े-बड़े मकान, कंगूरे सब एक-न-एक दिन नष्ट हो जाते हैं। हम अपने भविष्य को क्यों खराब करें। हम अपने सारे कार्यों को करते हुए उस राम-नाम रुपी मणि को अपने साथ हमेशा रखें।
हम अच्छा कर्म करें और जरुरतमंदों की मदद अवश्य करें, लेकिन समय-काल और परिस्थिति को देखते हुए अपनी रक्षा के उपाय भी अवश्य करें। यह नहीं कि आपको कोई मारने आ रहा है या कोई सांड ही आपको मरने आ रहा है तो आप किसी का इन्तजार करें कि कोई आकर हमें बचा ले, उस समय आपके हाथ में जो कुछ भी रहेगा उसी से प्रहार करके आप अपनी रक्षा कर सकते हैं। शरीर की रक्षा के लिये उसके उपाय और संसाधन हमें रखने होंगे।
क्योंकि इसी मनुष्य शरीर से हम ज्ञान सहित सबकुछ प्राप्त कर सकते हैं। मोह ग्रसित हो जिस चीज से हमलोग सबसे अधिक डरते हैं वह तो अवश्य ही आनी है। हमारा सबसे बड़ा डर मृत्यु को लेकर है। यह शरीर किसी का भी रहा नहीं है। हाँ, आपकी और हमारी आत्मा को कोई नहीं छू सकता। न कोई डरा सकता है, न मार सकता है और न नष्ट ही कर सकता है। राम-नाम के सूत्र को पकडे रहेंगे तो हमारा वह भय भी जाता रहेगा। बहुत धन या संपत्ति हो जाने पर हममें एक अहंकार भी आ जाता है कि अरे यह सब तो मैंने ही इकठ्ठा किया है और वही अहंकार उसके संस्कार और कर्मों को नीचे गिरा देते हैं।
हो सकता है कि आज जो आपके पास है वह आपके पूर्व जन्मों के कर्मों का फल हो या आपके माता-पिता के अच्छे संस्कारों के चलते य पूर्वजों के सद्कर्मों की देन हो या हमारी गुरुजनों के प्रति निष्ठा के चलते मिला हो।
लेकिन हम अपने कर्मों से इतने गिर जाते हैं कि अपनी आत्मा को भी पद्दलित कर देते हैं। इससे अच्छा तो एक गरीब आदमी है जो नैतिकता से जीता हो। वह अपने-आप में रहता है, अपनी मेहनत का खाता है, उसकी आत्मा उसको नहीं कचोटती कभी। घर-परिवार, माता-पिता, पति-पत्नी, बेटा-बहू, सास-पतोहू में अहंकार के चलते ही आज क्लेश व्याप्त हो रहा है। गुरु सर्वसंगी हैं, और वह देह नहीं अपने ही प्राण हैं। लेकिन हम सबसे ज्यादा उसी की उपेक्षा करते हैं तो हमें क्या प्राप्त होगा? मैं तो यही कहूँगा कि हम अपने अघोर ग्रंथावलियों का अध्ययन करें उनके बताये मार्ग पर चलें।
विशेषकर औघड़-अघोरेश्वर के बारे में यह है कि वह तो बैठे-बैठे ही जग का कल्याण करते हैं और बैठे-बैठे ही रूद्र रूप धारण करके जग का नाश भी कर देते हैं।
पर्यावरण को नष्ट करके हम लोग तो अपने-आपका ही विनाश कर रहे हैं। हम कहते हैं कि भाई परा-प्रकृति की प्रकृति में अपनी प्रकृति को देखो, लेकिन हम तो परा-प्रकृति की प्रकृति को ही पूर्णतः नष्ट कर रहे हैं। इतनी गर्मी है कि किसान लोग हाहाकार कर रहे हैं। डेवेलपमेंट के नाम पर वृक्षों की कटाई के आदेश अभी भी पारित हो रहे हैं। हम अपना विनाश तो स्वयं ही कर रहे हैं। आपलोग अधिक-से-अधिक वृक्ष लगायें। आपके पास जगह न हो तो औरों को लगाने की प्रेरणा दें। लेकिन भौतिकता की चकाचौंध में आज के समाज में पाप के बाप लोभ के चलते इतना ज्यादा ईर्ष्या-द्वेष और घृणा व्याप्त हो गया है कि कुछ कहा नहीं जा सकता।
परिवार जो पहले सामूहिक रूप से रहा करते थे वह आज छिन्न-भिन्न हो गए हैं, पति-पत्नी में भी झगड़ा-झंझट चल रहा है। पता नहीं क्या पढाया-लिखाया गया है आज हम अपने देश में ही रहने को तैयार नहीं हैं। गाँव में हैं और शहरचले गए तो गाँव रहने लायक नहीं, छोटे शहर से बड़े शहर गये तो छोटा शहर रहने लायक नहीं, अपने देश से विदेश गए तो अपना देश रहने लायक नहीं। अपने बड़े-बुजुर्गों की उपेक्षा करते हैं। ऐसा नहीं कि सभी लोग वैसे हैं, अधिकांश लोग बहुत अनुशासित हैं और अच्छा कार्य भी कर रहे हैं।
यह बातें अघोर पीठ जनसेवा अभेद्य आश्रम पोड़ी दल्हा के बाबा कापालिक धर्म रक्षित रामजी ने गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर आयोजित सायंकालीन गोष्ठी में कहीं।