छत्तीसगढ़रायगढ़

आओ मरने चले सड़क पर – रामचंद्र शर्मा

रायगढ़। आज सुबह सुबह जब अखबार पढ़ा तो लगा कि मौत को करीब आने के लिए जिले में किसी बहाने की जरूरत नहीं है। बस मोटर सायकल लेकर बाहर जाने की जरूरत भर है। तभी मेरी नजर अखबार के पहले पन्ने पर पड़ी जिसमें एक्सीडेंट से 3-4 मौत का उल्लेख था। इस पर मेरी बांछें खिल गई। मन प्रफुल्लित हो गया। कि अरे! यहां तो मरने के लिए किसी माध्यम को खोजने की जरूरत ही नहीं है। बस मोटर सायकल या सायकल निकालो और शहर से बाहर की ओर निकल जाओं। लगभग तय है कि यदि किस्मत ने साथ दिया तो मृत शरीर ही घर वापिस आएगा। क्योंकि यदि आपकों किसी हाईवा या ट्रेलर ने तेज गति से भगाते हुए पीछे से नहीं ठोका तो सड़कों का हाल ऐसा है कि उसके गड्ढे आपकों आसमान की सैर कराते हुए उछाल-उछाल कर खुद ही ट्रेलर के चक्के के नीचे ला देंगे। बस मुझे तो ऐसा लगा कि अपने साथ-साथ अपने किसी खुशकिस्मत साथी को या परिवार के सदस्य को भी साथ ले लूं ताकि मेरे साथ-साथ वह भी आसानी से स्वर्ग पहुंच जाए। दोस्तों जब भी हम किसी कार्य को करने के लिए आगे जाते हैं तो काफी लोगों का साथ मिलता है। ऐसे में हमें भी कई लोगों का साथ मिलेगा। इसमें सबसे पहला नाम यातायात विभाग शामिल किया जा सकता है। क्योंकि यातायात विभाग चौक-चौराहों पर मोटर सायकल की चेकिंग करते हुए, वसूली करते हुए तो मिल जाएगा। लेकिन बड़े-बड़े हाईवा व ट्रेलर की जांच करते हुए कड़ी कार्यवाही करते हुए शायद ही कभी मिलेगा।

यातायात विभाग की इस गतिविधि से हमारा मरना तो तय होगा। किसी कारण से थोड़ा बहुत बचने की संभावना होगी तो जिले में लगे हुए इतने सारे उद्योग हमको मरने में सहायता करेंगे। इन सभी उद्योगों से निकलने वाली ओवरलोड गाडिय़ां और प्रदूषण के कारण उठने वाला धुआं और धूल हमकों किसी भी स्थिति में बचने नहीं देगी। यही कारण है कि होने वाली सड़क दुर्घटनाओं ने मरने वाले औद्योगिक क्षेत्र से आने या जाने वाले होते हैं। उद्योगपतियों का क्या है वो किसी के मरने पर जब चक्का जाम करते हैं तो दो-चार लाख रुपये देकर मामले को निपटा देते हैं। मरने में साथ देने वालों में जनता की भूमिका भी कम नहीं है। क्योंकि मैं भी जनता हूं और जब कभी मोटर सायकल में घर से बाहर निकलता हूं तो हेलमेट बिल्कुल भी नहीं लगाता हूं। क्योंकि उससे मेरे चेहरे की सुंदरता लोगों को दिखाई नहीं देगी। तो कहीं न कहीं अपनी मौत का जवाबदार मैं अर्थात जनता भी खुद है। साथ ही मैं यह भी जानता हूं कि मेरी मौत पर जनता व्यवस्था को सुधारने के लिए आंदोलन करने की बजाए चक्का जाम कर मेरी लाश पर दबाव बनाकर दो-चार लाख रुपये मेरे घरवालों को दिलवा ही देगी। उसके बाद सभी लोग बातों को भूलकर अपने-अपने काम में लग जाएंगे और इंतजार करेंगे एक्सीडेंट से होने वाली अगली मौत का। इतना सब जानने के बाद भी हमारे मरने की इच्छा कम नहीं होती और हम 100 से अधिक की स्पीड में लगातार वाहन चलाते हुए दिखाई देते हैं। अरे-अरे हमारी मौत में सहयोग देने वाले एक वर्ग का नाम तो भूल ही गया। वो हैं हमारे राजनेता। क्योंकि अगर उद्योगों से प्रदूषण है, सड़क पर बेतहाशा धूल है, सड़क पर सड़क कम और गड्ढें ज्यादा दिखाई देते हैं, उद्योगपतियों की लापरवाही व गलतियों से यदि हम मर रहे हैं तो इन सब बातों को रोकने का पावर आखिर राजनितिज्ञों के पास ही होता है। लेकिन मुझे खुशी हैं कि हमारे एक्सीडेंट से मरने में सभी दलों के राजनितिज्ञों का भी जबर्दस्त सहयोग लगातार मिल रहा है। ऐसे में पुलिस और प्रशासन भी उनके कंधे से कंधा मिलाकर हमारे मरने में सहयोग प्रदान कर रही है। मैं अपने रायगढ़ जिले की ही बात करुँ तो हररोज दो से तीन लोग एक्सीडेंट में मौत हो रहे हैं। अर्थात साल भर में लगभग 1000 की संख्या हो ही जाती है। और क्यों न हो आखिर जनसंख्या भी इतनी बढ़ जो गई है। मरेंगे तभी तो बैलेंस बना रहेगा। अंतत: इन सभी बातों को सोचते हुए भय तो लगा लेकिन बाहर निकलने पर मरने में कोई दिक्कत नहीं होगी। यह विश्वास प्रबल हो गया। फिर मैनें धीरे से आईने में खुद को देखते हुए गर्वीली मुस्कुराहट मुस्कुराते हुए मोटर सायकल की चाबी अपने हाथों में ली और घरवालों को मैं जाकर आता हूं बोलने की बजाए मैं जाता हूं कहते हुए सड़क पर निकल गया। शायद मैं या मेरी ही तरह सड़क पर एक्सीडेंट से किसी की मौत को देखने के लिए।

रामचन्द्र शर्मा
आम नागरिक
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