भटकी हुई तरुणाई

भटकी हुई तरुणाई
मैंने विस्तार से स्पष्ट किया- “मुड़िया साधु! तुम्हें अधिकतर ऐसे ही देखने को मिलेगा। इसका कारण यह है कि आज जिस समय और काल से हम गुजर रहे हैं, उसनें तरुणाई सत्संग की ओर उन्मुख न होकर, सुविचारों की ओर आकृष्ट न होकर, दारिद्रय की ओर, खोखले एवं निरर्थक कार्यों की ओर, कुकृत्यों की ओर अधिक आकर्षित है। इससे लोगों को कैसे सावधान करोगे।
देश की उन्नति से उदासीन, उसके प्रति निश्चेष्ट, देश की अवनति की ओर उन्मुख, राष्ट्रीय संपत्ति एवं निधियों की तोड़-फोड़ एवं समाज में विकृति तथा क्षोभ उत्पन्न करने वाले तरुण वर्ग की तरुणाई के कारनामें तुम सुन रहे हो, देख रहे हो। इन पर मन्मथ की प्रबल और प्रचण्ड मार पड़ती है। क्षणिक सुख भयंकर दुःख में परिवर्तित हो जाता है। तरुणाई को तो सज्जनों के संग के माध्यम से, सन्तों के संग और सानिध्य के संबल से, सत्संग से सकुशल रखा जा सकता है, सुरक्षित किया जा सकता है। उनके माता-पिता के उदार चरित्र भी इसमें सहायक होंगे। साथ, ही माता-पिता का भय भी आवश्यक है।
तरुणाई एक ऐसी धूल है, जिससे सारे शरीर के वस्त्र भी मलिन एवं दूषित हो जाते हैं। चक्षु में कण प्रविष्ट कर जाते हैं, जिससे यह पता नहीं चलता है कि किस दिशा में, किस मार्ग में जाने से हमारा मंगल होगा। किस दिशा में और किस मार्ग के चलने से हमारा मंगल अवश्यम्भावी है। अच्छे-बुरे कार्यों की चेतना भी जाती रहती है। परिणामत: अशोभनीय कृत्यों के करने के बाद ग्लानि का अनुभव भी नहीं होता। इसी अवांछनीय आचरण एवं मन:स्थिति को वे अपना धर्म मान बैठते हैं। यह तरुणाई न जाने कितनी कुलीन महिलाओं के लिए भयोत्पादक बन जाती है…