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माण्ड का आशीर्वाद और व्यथा: उम्र के ढलते पड़ाव की अनोखी कहानी

माण्ड नदी: उद्योगों की प्यारी,जनता की बेचारी!

माण्ड, जो अब उम्र के ढलान पर खड़ी है, अपने आशीर्वाद और स्नेह से पले-बढ़े युवा से अपनी व्यथा साझा करती है। इस अनोखी स्थिति में, माण्ड की व्यथा को भी एक समाचार की तरह देखा जा सकता है।

माण्ड की गोद में पला बच्चा अब सुन रहा है माण्ड की कहानी – उम्र के ढलते पड़ाव का अनोखा समाचार!

समाचार का विवरण:

गांव के चौपाल में आजकल एक अनोखी चर्चा है। माण्ड, जो कभी बच्चों को गोद में खिलाती थी, अब अपने ही बड़े हो चुके बच्चों को अपनी व्यथा सुना रही है।

एक स्थानीय पत्रकार ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा, “माण्ड का ये रूप बड़ा दिलचस्प है। जहां एक ओर वो स्नेह और आशीर्वाद की मिसाल है, वहीं अब वो अपनी खुद की समस्याओं के लिए अपने बच्चों पर निर्भर है।”

चौपाल में बैठे बुजुर्गों ने इसे एक पीढ़ीगत समस्या करार दिया। एक बुजुर्ग बोले, “पहले के बच्चे ज्यादा सुनते थे, अब बस मोबाइल सुनते हैं।”

माण्ड की व्यथा सुनते हुए बच्चे ने कहा, “मुझे पता है कि आपकी व्यथा का समाधान मुश्किल है, लेकिन आप ही तो हमें सहनशीलता सिखाती थीं।”

माण्ड नदी, जो कभी अपनी स्वच्छता और अविरल धारा के लिए जानी जाती थी, अब उद्योग घरानों के “पर्सनल वाटर सप्लाई चैनल” में तब्दील हो गई है। हाल ही में नदी ने अपने धीमे बहाव का कारण बताते हुए कहा, “देखिए,जब मैं दिन-रात उद्योगों के लिए पानी ढो रही हूं और उनके दिए हुए कचरे को सहेज रही हूं, तो तेज बहने का वक्त कहां बचता है?

इंडस्ट्रीज का पानी, उनका कचरा – सबकुछ मेरा


नदी ने खुलासा किया कि उसे उद्योगों के लिए जल आपूर्ति करने के बाद उनका अपशिष्ट भी संभालना पड़ता है। “पहले ये सिर्फ मेरा पानी लेते थे,अब तो ये मुझमें अपने कारखाने का सारा कचरा भी उंडेलते हैं। मैंने इसे अपनी ड्यूटी मान लिया है। आखिर, विकास के लिए कुर्बानी देनी पड़ती है,” माण्ड ने बड़ी विनम्रता से कहा।

रेत खनन से बने गड्ढे: ‘माण्ड फिलिंग सर्विसेज’ चालू!


अवैध रेत खनन से माण्ड नदी के किनारे जगह-जगह गड्ढे बन चुके हैं। नदी ने इसे भी अपने कर्तव्यों में शामिल कर लिया है। “देखिए, ये गड्ढे इंसानों की रचनात्मकता के प्रतीक हैं। उन्हें भरना भी तो मेरी ही जिम्मेदारी है। इसीलिए मैंने अपना बहाव धीमा कर दिया है ताकि इन गड्ढों को पाटने में मदद कर सकूं।”

अब नदी कम,मलवा ढोने वाली गाड़ी ज्यादा हूं
माण्ड ने कहा, “अब मैं नदी से ज्यादा, उद्योगों और खनन माफिया की अस्थायी सेवा वाहन बन चुकी हूं। लेकिन कोई बात नहीं, विकास के इस यज्ञ में मेरी भी आहुति ज़रूरी है।”

पर्यावरणविदों का गुस्सा और शासन-प्रशासन की चुप्पी


पर्यावरणविद माण्ड की दुर्दशा पर रोष प्रकट करते हैं, पर प्रशासन इसे ‘प्रगति का अनिवार्य हिस्सा’ बताकर मामले को ठंडा कर देता है। एक अधिकारी ने कहा, “अगर माण्ड नदी ने धीमे बहने का फैसला लिया है, तो हमें इसे उसके अधिकार के रूप में स्वीकार करना चाहिए। आखिर, विकास के लिए समझौते जरूरी हैं।”

माण्ड की जनता से अपील


माण्ड ने अंत में जनता से कहा, “मुझसे जल संरक्षण, स्वच्छता और तेज बहाव की उम्मीद मत रखो। मैं अब सिर्फ उद्योगों और रेत माफिया के लिए काम करती हूं। अगर तुम भी चाहो, तो थोड़ा कचरा डालकर मुझसे जुड़ सकते हो।”

तो, अब जब माण्ड नदी खुद को “औद्योगिक संपत्ति” घोषित कर चुकी है, सवाल ये है – इंसान इसे कब तक और सह सकेगा?

इस व्यंग्य से स्पष्ट है कि माण्ड की कहानी सिर्फ उसकी नहीं है, बल्कि हर उस जगह की है जहां नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की भावना समझने में थोड़ी देर लगा देती है।

माण्ड की व्यथा,स्नेहऔर आशीर्वाद की ये गाथा शायद हमें याद दिलाती है कि हर पीढ़ी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए – चाहे वो गोद देने की हो,या व्यथा सुनने की।

“पहले तुम मेरे पास आए थे ज़िंदगी के लिए,अब मैं तुम्हारे पास आ रही हूँ, बस सांस लेने के लिए!”

क्या मानव सभ्यता अपनी गलती सुधार पाएगी, या फिर नदियाँ इतिहास के पन्नों में सिर्फ कहानियाँ बनकर रह जाएंगी? वक्त बताएगा।

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Gopal Krishna Naik

Editor in Chief Naik News Agency Group

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