
रायगढ़। समाज में बढ़ते तनाव के बीच मीडिया सकारात्मक रिपोर्टिंग और अपनी जन-जन में पहुँच का इस्तेमाल कर के मानसिक स्वास्थ्य पर जागरूकता बढ़ा सकता है जिसके फलस्वरूप आत्महत्याओं में कमी आएगी | उपरोक्त बातें मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी (सीएमएचओ) डॉ. एसएन केसरी ने `आत्महत्या, मानसिक स्वास्थ्य एवं मीडिया रिपोर्टिंग’ पर आज हुई कार्यशाला के दौरान कही।
इस मीडिया कार्यशाला का आयोजन राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम और नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर एड्वोकेसी एंड रिसर्च ने मिलकर किया था। इसका उद्देश्य पत्रकारों को आत्महत्या की रिपोर्टिग और मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूक करना था।
इस मौके पर बोलते हुए डा. टी के टोंडर, नोडल अधिकारी, जिला मानसिक स्वास्थ्य, ने कहामानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को समुदाय तक पहुंचान के उद्देश्य से मितानिन स्तर तक मानसिक स्वास्थ्य पर प्रशिक्षण हुआ है जिससे मानसिक रोगियों की पहचान और उनका समय से उपचार किया जा सके। उन्होनें स्पर्श क्लिनिक, 104 हेल्पलाइन नंबर व स्वास्थ्य विभाग द्वारा प्रदत्त अन्य सुविधाओं की भी जानकारी दी। बताया कि मानसिक रोगियों का उपचार सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में निशुल्क उपलब्ध है और रोगियों का नाम भी गुप्त रखा जाता है।
डाक्टर राजेश अजगल्ले, मनोचिकित्सक, रायगढ़ मेडिकल कॉलेजने भी प्रतिभागियों को सम्बोधित किया और विस्तृत रूप से मानसिक समस्याओं, उनके लक्षण और जिले में उपलब्ध सेवाओं के बारे में विस्तार से बताया। मानसिक रोगियों के लक्षण जैसे जीवन से उब जाना, मायूस रहना, भूख न लगना, नींद न आना या ज्यादा आना इत्यादि होते हैं। समय से उपचार करने पर मानसिक रोगी सामान्य हो सकते हैं।
सेंटर फॉर एड्वोकेसी एंड रिसर्च की वरिष्ठ परामर्शदाता सुश्री आरती धर ने आत्महत्या रिपोर्ट लेखन पर चर्चा करते हुए बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी), 2020 के अनुसार 26.4 प्रति 100,000 व्यक्ति की दर के साथ छत्तीसगढ़ देश में सर्वाधिक आत्महत्या की दरों वाले राज्यों में से तीसरे नंबर है। राष्ट्रीय औसत 11.3/ 100,000 है।राज्य के दुर्ग-भिलाईनगर में आत्महत्या की दर देश के बड़े शहरो में तीसरे स्थान पर है।यहाँ आत्महत्या की दर 30.7 प्रति 100,000 व्यक्ति है।राजधानी रायपुर में भी यह दर 30.0 प्रति 100,000 है।
आत्महत्या के प्रयास विभिन्न कारणों से किये जाते हैं जैसे घरेलू समस्याएं, परीक्षाओं में असफलता या नशे की आदत – लेकिन शोधों में यह पाया गया है कि मीडिया में आत्महत्याओं पर आने वाली ख़बरें बाकी लोगों को उन तरीकों की नकल कर वैसा ही कदम उठाने के लिए प्रेरित करती हैं ।इसे `कॉपी कैट इफ़ेक्ट’’ कहा जाता है।
एक ही समय में कई अलग अलग चीज़ों के अचानक बिगड़ जाने से उत्पन्न हुई स्थिति परिणाम स्वरूप आत्महत्या की घटनाओं को पैदा करती है।इसका कोई एक कारण नहीं होता है और न ही ये प्रवृत्ति किसी एक विशेष प्रकार के व्यक्ति में पायी जाती है। इसके जैविक कारण भी हो सकते हैं जैसे आनुवांशिकी (जेनेटिक्स), पूर्वानुमानित कारण जैसे न्यूरोलॉजिकल विकार या नशे की आदत, या अचानक उद्वेलित कर देने वाले अन्य कोई कारण जैसे निराशा, लोगों के बीच किसी कारणवश शर्मिंदगी या उसका भय होना, संसाधन तक पहुँच होना, कोई बड़ी असफलता या नुकसान होना।
इस विषय की गंभीरता को संज्ञान में लेते हुए विश्व स्वास्थ संगठन ने 2008 में आत्महत्या पर रिपोर्टिंग के लिए मीडिया दिशा-निर्देश बनाये। ये दिशा-निर्देश पत्रकारों को आत्महत्या से जुड़ी ख़बरों की संवेदनशील रिपोर्टिंग करने की सलाह व मार्गदर्शन देते हैं ।दिशा-निर्देश इन रिपोर्टों के शीर्षक लिखने में सावधानी बरतने की सलाह भी देते हैं।इसके साथ ही ऐसी रिपोर्टों को सनसनीखेज़ न बनाने और आत्महत्या के तरीकों को विस्तार से न बताने की वकालत भी करते हैं | एक ऐसे समय में जब अधिक से अधिक लोगों की पहुँच पारंपरिक और सोशल मीडिया तक होती जा रही है, आने वाले समय में स्थितियों के और बिगड़ने की संभावना है। इन स्थितियों में ये बहुत आवश्यक है कि लोगों को आत्महत्या के विषय पर जागरूक किया जाये। पैरोकारी की इस प्रक्रिया में मीडिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
हम निम्न बिन्दुओं पर प्रकाश डालना चाहते हैं :
1 मीडिया को ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए जो आत्महत्या को सनसनीखेज़ या फिर एक सामान्य सी बात बनाती हो या इसे समस्याओं के हल के तौर पर दिखाती हो | अक्सर देखा गया है कि लोगों का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से शीर्षक सनसनीखेज़ बनाये जाते हैं | अधिकाँश रिपोर्टों के लिये ये न्यायोचित हो भी सकता है लेकिन आत्महत्या पर रिपोर्ट लिखते समय ऐसा बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि ये पाठक पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। इसलिये इस बात पर ध्यान देना भी ज़रूरी है कि शीर्षक सनसनीखेज़ न बनाये जायें।शीर्षक में आत्महत्या शब्द को इस्तेमाल करने से बचा भी जा सकता है। 2- आत्महत्या की रिपोर्टों को पृष्ठ में मुख्य स्थान पर लगाने व उनके ग़ैर ज़रूरी दोहराव से बचना जनहित के लिए एक अच्छा प्रयास हो सकता है। इसके साथ ही आत्महत्या या आत्महत्या की कोशिश में अपनाये गए तरीकों को विस्तार से बताने से बचें।
3- जहाँ तक सम्भव हो रिपोर्ट में मृत व्यक्ति की फ़ोटो का इस्तेमाल करने से बचें।
4- रिपोर्ट को इस तरीके से लिखा जा सकता है कि उसमें इस्तेमाल किये गये तरीके के बारे में न बताया जाये और इसका खबर पर कोई प्रभाव भी न पड़े।
5-आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के परिवार जनों के प्रति संवेदनशीलता दिखायें और ये जानकारी दें कि आत्महत्या की प्रवृत्ति देखने पर कहाँ से मदद लें। आत्महत्या की रोकथाम के लिए किये जा रहे प्रयासों में एक ज़रूरी पक्ष ये समझना भी है कि मीडियाकर्मी स्वयं भी आत्महत्या की ऐसी रिपोर्टों से प्रभावित हो सकते हैं ।
मानसिक बीमारी/आत्महत्या के मामलों की रिपोर्टिंग पर पीसीआई द्वारा अपनाए गए दिशा–निर्देश…
पिछले वर्ष प्रेस कॉउंसिल ऑफ़ इंडिया ने भी विश्व स्वास्थ संगठन की तर्ज़ पर ही आत्महत्या रिपोर्टिंग के लिए दिशा-निर्देशजारी किये है और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 की धारा 24 (1) के उद्देश्य से मानसिक बीमारी से संबंधित समाचारों के प्रकाशन/रिपोर्टिंग से संबंधित परिषद ने मानदंड अपनाया है, जिसके अनुसार मीडिया मानसिक स्वास्थ्य प्रतिष्ठान में उपचार के दौरान किसी व्यक्ति के संबंध में तस्वीरों या किसी अन्य जानकारी को प्रकाशित नहीं करे।
कार्यशाला में जिला कार्यक्रम प्रबंधक भावना महलवार, गैर-संचारी रोग के नोडल अधिकारी डॉ योगेश पटेल,शहरी कार्यक्रम प्रबंधक डॉ राकेश वर्मा, मेंटल हेल्थ काउंसलर अतीत राव, स्वास्थ्य विभाग के इंजीनियर नीतिराज सिंह,मधुकर गुप्ता,उमा महंत समेत 60 से अधिक पत्रकार कार्यशाला में मौजूद रहे।