छत्तीसगढ़

भाजपा को फिर झटका देने की तैयारी में है किसानों के बूते सत्ता में आई भूपेश सरकार

आलोक मिश्र। छत्तीगसढ़ में भाजपा के बुरे दिन जारी हैं। बीच में मोदी चुनाव (लोकसभा चुनाव) बाद जो गाड़ी पटरी पर आती दिख रही थी, वह निकाय चुनाव में पूरी तरह उतर गई। यह बाजी कांग्रेस ने अपनी सरकारी हनक की बदौलत कायदे से जीत ली। भाजपा अब पंचायत चुनावों के भरोसे है कि शायद वहां धान कोई गुल खिलाए और किसान उसका नसीब बदलवाएं, लेकिन किसानों के बूते सत्ता में आई भूपेश सरकार उसमें भी धोबीपाट की तैयारी किए बैठी है।

पद्रंह साल छत्तीसगढ़ की राजनीति में पूरी तरह छाई रही भाजपा के लिए पिछला एक साल बहुत बुरा बीता। सूबे की सत्ता गंवाई, बीच में हुए दो विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनाव में पिटी और उसके बाद निकाय चुनाव भारी पड़ा। बीच में हुए लोकसभा चुनाव के नतीजे जरूर उसके पक्ष में आए, लेकिन इसका श्रेय मोदी करिश्मे को ही मिला। स्थानीय नेतृत्व की चर्चा तक नहीं हुई। भाजपा आस लगाए थी कि 10 नगर निगमों एवं 151 नगरीय निकायों के चुनाव में शायद वह कांग्रेस के एक साल के कार्यकाल को मुद्दा बना अपने दिन ठीक कर लेगी, लेकिन भूपेश सरकार ने ऐसे पत्ते फेटे कि बाजी उसी के हाथ रही। उसने ईवीएम के बजाय बैलेट से चुनाव करवाया और मेयर एवं अध्यक्ष को जनता से न चुनवा कर पार्षदों से चुनवाया। लिहाजा अब तक दस निगमों में से आठ में हुए चुनाव में भाजपा का एक भी मेयर नहीं बन पाया।

इन आठ निगमों में पहले कांग्रेस के पास केवल रायपुर एवं जगदलपुर में ही अपना मेयर था, जबकि चार में भाजपा एवं दो में निर्दलियों का कब्जा था। इसमें इजाफा करना तो दूर वह अपने सभी गढ़ गंवा बैठी। पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के क्षेत्र राजनांदगांव में तो भाजपा अपने पार्षदों तक को नहीं संभाल पाई। उसके 21 जीते, लेकिन वोट 20 ही मिले। अब बचे दो निगमों में उसे केवल कोरबा से ही आस है, जहां वह अपनी इज्जत बचा सकती है। जबकि अंबिकापुर किसी भी हालत में उसके हाथ नहीं आने वाला।

अब विधानसभा, लोकसभा के बाद के इस आखिरी राउंड के दूसरे चरण यानी पंचायत चुनाव की डुगडुगी बज चुकी है। भाजपा फिर एक बार जोर-आजमाइश में है। वह इस फिराक में है कि जो किसान उसे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के धान समर्थन मूल्य बढ़ाने के दांव के कारण गच्चा दे चुके थे, उन्हें अपने पाले में ले आए। क्योंकि 2500 रुपये समर्थन मूल्य देने में भूपेश सरकार के सामने केंद्र रोड़ा बना हुआ है। खरीदी 1835 में ही हो रही है। बाकी रकम के लिए आश्वासन जारी है कि कमेटी तय करेगी कि किस तरह इसे दिया जाए। बढ़े समर्थन मूल्य के कारण बढ़ा धान का कोटा भी सरकार के लिए संकट बना हुआ है।

हालांकि केंद्र ने अपने कोटे में 24 लाख मीटिक चावल लेने की सहमति देकर उसका कुछ बोझ हल्का कर दिया है, लेकिन फिर भी 8 लाख टन और लेने की मांग पर वह अड़ी है। इधर खराब मौसम एवं खरीदी के तरह-तरह के नियम किसानों को परेशान किए हैं। वह किसानों के बीच यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि उन्हें मूर्ख बनाया जा रहा है। वह मोदी सरकार की किसान सम्मान निधि का हवाला दे खुद को उनका सबसे बड़ा शुभचितंक ठहराने का प्रयास कर रही है। अब देखना यह होगा कि वह इसमें कितना सफल हो पाती है या भूपेश सरकार फिर बाजी मार ले जाती है, क्योंकि केंद्र पर दबाव बनाने के लिए कांग्रेस किसानों से ही 17 लाख पाती केंद्र को लिखवा कर खुद को किसानों का सच्चा हिमायती बताने का दांव चल चुकी है।

आदिवासी और किसान, यही दोनों हैं सूबे में कांग्रेस की जान। किसानों के लिए तो वह तरह-तरह के प्रयोग कर ही रही है, वहीं इस बार उसने राष्ट्रीय स्तर का आदिवासी नृत्य महोत्सव करवा कर उनसे भावनात्मक रिश्ता जोड़ने की कोशिश की। इसके लिए उसने ब्राडिंग भी खूब की। हर प्रदेश में उसके नेता जाकर वहां के मुख्यमंत्रियों एवं राज्यपालों को न्योता देकर आए। इसमें छह देशों और 25 राज्यों के करीब 18 सौ कलाकार जुटे। इतनी बड़ी जुटान की कल्पना खुद भूपेश को भी नहीं थी, लिहाजा परिणाम देख इसे आगे भी जारी रखने का वादा भी कर दिया गया। बहरहाल सरकार के एक साल पूरे हो चुके हैं। इनमें इसी तरह के महोत्सव एवं त्योहारों का ही जोर रहा। बीच-बीच में चुनावी शोर उठते रहे। इन्हीं गतिविधियों के बीच सरकार ने अपने एक साल काट दिए हैं। अब आगे की डगर उसके लिए भी आसान नहीं रहने वाली, जब उसके सामने विकास को लेकर सवाल खड़े किए जाएंगे।

(लेखक नईदुनिया, छत्तीसगढ़ के राज्य संपादक हैं)

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