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दाम चुकाओ तो आज क्या नहीं मिल जाता

दाम चुकाओ तो आज क्या नहीं मिल जाता

कल तक जो आपके घर में दूध में पानी मिला कर बेचते थे, उन्हें अगर आज मिलावट और कुपोषण के खिलाफ जंग छेड़ते देखते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि आपके इलाके में जल संकट गहरा हो गया है और आपके दूध वाले भय्या जो पहले आपको पानी में दूध मिला कर बेचते थे, अब दूध में भी पानी नहीं मिला पाते। दूध को गाढ़ा करने वाले पाऊडर के दाम बढ़ गए हैं, इसलिए उनके मन में बिना मिलावट दूध बेचने का पुण्य कमाने का जज्बा पैदा हो गया है। आज शायद ‘हींग लगे न फिटकड़ी, रंग भी चोखा आए’ का नया चलन पैदा हो गया है। अब दूध में पानी मिलाने का झंझट काहे पालना, जबकि इसके विरुद्ध विशुद्ध संस्कृति का नारा लगाने से ही आपके नेतागिरी की पालकी को किराए के कहार उठा लेते हैं। दाम चुकाओ तो आज क्या नहीं मिल जाता। बंधु, ज़माना बदल गया है। नई सदी ने नई समझ दे दी है। अब सदियों से पिछड़े हुए इस देश की गुरुतर आबादी को हर समस्या का हल वृहत परिप्रेक्ष्य में करना सीखना होगा। अब समझ की व्याकरण हीन बदलो, अपने नए शब्दकोषों में शब्दों के अर्थ भी बदल डालो। वर्तमान से असंतुष्ट लोगों को अतीत की गरिमा से सराबोर कर दो। लेकिन बंधुवर, हथेलियों पर सरसों तो नहीं जमाई जा सकती न। देश में अतीत का वैभव लौटाने के लिए इंतजार करना ही होगा। इस देश में काम धेनु और कल्पवृक्ष का युग भी लौट कर आएगा। तब यह जीवन, समाज और गलत भौतिकवादी मूल्यों का गंदलापन छंट जाएगा। इन दिनों का इंतजार करो, तब तुम्हें नहीं कहना पड़ेगा कि ‘हर शाख पर उल्लू बैठे हैं, इस चमन का यारो क्या होगा?’ फिलहाल इस उजड़ते चमन की सूखी डालियों पर महंगाई, भ्रष्टाचार, नौकरशाही और गाल बजाते मसीहाओं के उलूकनुमा व्यवहार को सहन करो, क्योंकि कल तो इन्हीं डालियों पर सोने की चिडि़या चहचहाएंगी। गांव नगर प्रदेश देश में सतयुग की वापसी चाहते हो नए तो आज के इस कलयुग और अंधेरनगरी चौपट राजा के माहौल को सहन करो। आयातित मूल्यों ने हमारा संस्कृति को इतना गंदला कर दिया है कि अब उसकी विरूपता पहचाना भी नहीं जाता। भला हमारे इतिहास में कभी सुना था कि भीड़ तंत्र ने दिशाहीन हो मासूम लोगों को घेर उनका दलन कर उनकी हत्या कर दी? हमने अपने सांस्कृतिक इतिहास के सब पन्ने खंगाल लिए, यह मानव लिंचिंग का शब्द तो हमें कभी दिखा नहीं। इसलिए कहते हैं इस पीड़ा और पतन के विरुद्ध चिट्ठियां लिखने की बजाय इसे अपने सामाजिक जीवन से बहिष्कृत कर दो। हम सिर खुजलाते हुए इस संदेश को अंगीकार करते हुए उस कूड़े के डंप पर बैठ गए जिससे आज हमारे गांव नगर का हर महत्त्वपूर्ण कोना आभूषित हो गया है। भीड़तंत्र में मानव दलन विदेशी आयतित भावना है, इसे नकारो। गहरी धुंध से उभरता हुआ उनका संदेश कहता है। इस धुंध के हटने का इंतज़ार तो करना ही होगा। इसके धुंध के नेपथ्य में छिपे माफिया तंत्र को बेनकाब कौन करेगा? काले धन के भामाशाह सूत्रधार बन कर कठपुतलियों का खेल खेलते हैं। इसे ही अपना जीवन मान इसे क्षणभंगुर क्यों मान लें आपके तात।

जैसे हर रात के बीतने के बाद सुबह होती है, इसी प्रकार इस कलियुग के बाद सतयुग अवश्य आएगा।

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Gopal Krishna Naik

Editor in Chief Naik News Agency Group

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