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कैटेगरियां नैतिकता की

कैटेगरियां नैतिकता की

जिस तरह प्राचीन साहित्याचार्यों ने कविता की विभिन्न श्रेणियां बनाई हैं उसी तरह आधुनिक नैतिकाचार्यों ने भी नैतिक मूल्यों की दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़ती बाजारू डिमांड को देखते हुए उसको मोटे-मोटे तौर पर तीन कैटेगरियों में बांटा हैं-उच्च कैटेगरी की नैतिकता, मध्यम कैटेगरी की नैतिकता और साधारण बोले तो न के बराबर कैटेगरी वाला नैतिकता। पर नैतिकाचार्य अभी तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि सबसे श्रेष्ठ कैटेगरी की नैतिकता पर मूल रूप से किस वर्ग का अधिकार होना चाहिए। इसलिए समाज में चुप-चाप ऊंचे लोगों की नैतिकता सबसे ऊंची कैटेगरी की मान ली गई है। उनके नैतिकता पर निचली कैटेगरी की नैतिकता वाले सवाल नहीं उठा सकते। इसलिए वे आपस में ही एक-दूसरे की नैतिकता पर हाथ-लात उठाते रहते हैं। अपने स्टेटस के जोर पर लोकतंत्र होने के बावजूद भी उच्च कैटेगरी की नैतिकता को ऊंचे लोग ही अपना बगल में रौब दाब से दबाए बैठे हैं। लोग हाई प्रोफाइल हैं तो तय है उनका नैतिकता भी हाई प्रोफाइल ही होगा।

मध्यमवर्गीय लोग सब कुछ दिखावे के लिए हाई रख सकते हैं, पर नैतिकता बिल्कुल भी हाई नहीं रख सकते। उनके लिए उच्च कैटेगरी की नैतिकता सर्वथा निषेध माना गया है। वैसे भी कायदे बे कायदे उच्च कैटेगरी की नैतिकता पर पहला हक उच्च का ही बनता है। और नैतिकता को लेकर एक दूसरे के हक हकूक मारना वर्गीय अपराध होता है। इसके बाद आता है मध्यम वर्गीय नौकरी, ओकरी पेशाओं की मध्यम कैटेगरी की नैतिकता। इस वर्ग की नैतिकता इसका हैसियत की तरह मध्यम स्तर का ही होता है। मध्यमवर्गीय जिस तरह अपना चारित्रिक मध्यमपने को सोए सोए भी मच्छरों के काटने के डर से ओढ़े रखता है उसी तरह वह छोटा बड़ा गलत काम करने के तुरंत बाद अपनी कैटेगरी की नैतिकता को इधर-उधर से खींच फाड़ ओढ़ अपने गलत काम को नैतिकता के चमकीले रैपर में लपेट लेता है या कि अपने स्तर की नैतिकता से लिपटा रहता है, उसी तरह जैसे चंदन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं। ऊंचे सपने देखने के बाद भी वह उच्च कैटेगरी की नैतिकता को संभाल नहीं सकता। कारण, उच्च कैटेगरी की नैतिकता को संभालने के लिए बंदा भी उतना ही ऊच्चा लुच्चा होना लाजिमी है। इसलिए वह जानता है कि जो वह अपने( स्तर न लिख) लेवल से बड़ी नैतिकता रखेगा तो अपने दोस्त तक उसे शाम को ड्योढ़ी(दहलीज़) से अंदर न घुसने देंगे। बचा अब लोअर तबका। उसकी नैतिकता भी इसकी तरह अधम कैटेगरी का ही होता है। वैसे इसको नैतिकता रखने की जरूरत भी नहीं होता। सवाल ये भी है कि वह झुग्गियों में खुद रहे या इस कमीनी नैतिकता को रखे? उसे बिन जाने भी पता होता है कि नैतिकता प्रेक्टिकली सबसे बेकार की चीज होता है। उसके लिए तो बस रोटी के मायनों का पता होता है कि वह गोल गोल पकी अधपकी होता है। इधर-उधर से किसी की बची हुई होता है। उसके साथ दाल न भी हो तो भी वह सूखी मजे से खाया जा सकता है। उसके लिए तो बस कपड़े के अर्थ का इतना भर पता होता है कि वह किसी बड़े साहब या उनकी बीवी बच्चों का नैतिकता सा उतारा हुआ होता है जिसे उसे पहनना उसके लिए हर हाल में लाजिमी होता है।

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Gopal Krishna Naik

Editor in Chief Naik News Agency Group

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